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वेषि॒ ह्य॑ध्वरीय॒तामग्ने॒ होता॒ दमे॑ वि॒शाम्। स॒मृधो॑ विश्पते कृणु जु॒षस्व॑ ह॒व्यम॑ङ्गिरः ॥१०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

veṣi hy adhvarīyatām agne hotā dame viśām | samṛdho viśpate kṛṇu juṣasva havyam aṅgiraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वेषि॑। हि। अ॒ध्व॒रि॒ऽय॒ताम्। अग्ने॑। होता॑। दमे॑। वि॒शाम्। स॒म्ऽऋधः॑। वि॒श्प॒ते॒। कृ॒णु॒। जु॒षस्व॑। ह॒व्यम्। अ॒ङ्गि॒रः॒ ॥१०॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:2» मन्त्र:10 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:2» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कैसा वर्त्तना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अङ्गिरः) अङ्गों के मध्य में रसरूप (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी (विश्पते) प्रजा के स्वामिन् विद्वन् ! जो (हि) जिस कारण से (होता) दाता आप (अध्वरीयताम्) अपने अध्वर की इच्छा करते हुए (विशाम्) प्रजाजनों के (दमे) गृह में (वेषि) व्याप्त होते हो वह आप (समृधः) उत्तम प्रकार से ऋद्धिवाले (कृणु) करिये और (हव्यम्) ग्रहण करने योग्य का (जुषस्व) सेवन करिये ॥१०॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे अग्नि यज्ञ करनेवालों और प्रजाओं के कार्य्यों को सिद्ध करता है, वैसे ही विद्वान् जन सब के प्रयोजनों को सिद्ध करते हैं ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे अङ्गिरोऽग्ने विश्पते विद्वन् ! यो हि होता त्वमध्वरीयतां विशां दमे वेषि स त्वं समृधः कृणु हव्यं जुषस्व ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वेषि) व्याप्नोषि (हि) यतः (अध्वरीयताम्) आत्मनोऽध्वरमिच्छताम् (अग्ने) पावक इव विद्वन् (होता) दाता (दमे) गृहे (विशाम्) प्रजानाम् (समृधः) सम्यगृद्धिमन्तः (विश्पते) प्रजास्वामिन् (कृणु) कुरु (जुषस्व) (हव्यम्) प्राप्तुं गृहीतुमर्हम् (अङ्गिरः) अङ्गानां मध्ये रसरूप ॥१०॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यथाग्निर्ऋत्विजां प्रजानां च कार्य्याणि साध्नोति तथैव विद्वांसः सर्वेषां प्रयोजनानि निष्पादयन्ति ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! अग्नी जसे यज्ञ करणाऱ्यांचे व प्रजेचे कार्य पूर्ण करतो तसेच विद्वान लोक सर्वांचे प्रयोजन सिद्ध करतात. ॥ १० ॥